“ नारी व्यथा”
बिक रही , सरे आम इज्ज़त लड़कियों की सेल में,
फिर बिक रही है , द्रोपदी, चौसर के यारों खेल में,
खामोश होकर आज भी वो रोशनी को ढूँढती,
कैसे घाना अंधेर है , पुरुषार्थ के इस जेल में ||
किससे कहे ? कितना डरे ? खामोश सब कुछ सह रही,
कोक से अब गोद में आने को माँ से कह रही,
कह रही है माँ से अपने, माँ तू मुझे न मारना,
छू मैं लूंगी चाँद तारे, माँ मुझे तू पालना,
पर माँ कहाँ स्वतन्त्र है ?? दरिंदो के राजतंत्र मे
चीर हरने अब लगे हैं , कलयुग के साधू संत ने
और बेटियां अब त्रस्त हैं , रावण –कंस के मेल में
कैसे घाना अंधेर है , पुरुषार्थ के इस जेल में ||
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